Wednesday, April 09, 2008

बात आई 1-2-3 की तो संपादकजी 9-2-11

दिल्ली से प्रकाशित एक नए (दैनिक नहीं) अखबार का संपादकीय पढ़ने लायक है। संपादकजी ने परमाणु करार पर अपने अखबार का मुख्य संपादकीय लिखा है और वह भी पहले पन्ने पर। लेकिन बेचारे एटमी करार, आईएईए और 123 करार जैसे शब्दों को लेकर कनफ्यूज ही नहीं बहुत दुखी, चिंतित और परेशान भी हैं। इतना ही नहीं, उन्हें इन शब्दों के पीछे किसी तरह की साजिश की भी गंध आ रही है। उनकी निगाह में परमाणु करार से संबंधित सबसे चिंताजनक बात शायद यह है कि "सरकार आम लोगों को इन शब्दों के अर्थ नहीं बताना चाहती।" अमां संपादकजी, इतने परेशान होने की क्या जरूरत है? इंटरनेट पर आईएईए और 123 एग्रीमेंट लिख डालो और लो जान लो जितना कुछ जानना चाहते हो। आपको इन शब्दों के अर्थ जानने से भला किसने रोका है, सिवा आपके स्वयं के? और हां, इतने 'जटिल मुद्दे' पर संपादकीय लिखने की भला कौनसी मजबूरी आन पड़ी थी?

6 Comments:

At 12:24 PM, Blogger Rajesh Roshan said...

ha ha ha :)

 
At 12:26 PM, Blogger Unknown said...

बालेन्दु जी आजकल सम्पादक इसलिये नहीं बनता कि वह कोई अकादमिक या लेखक होता है, बल्कि इसलिये बनता है कि वह या तो मालिक का रिश्तेदार होता है या फ़िर उसमें "माल" को बेचने की ताकत और चालाकी होती है… ठीक वैसे ही जैसे कि कुलपति इसलिये नहीं बनाया जाता कि उसमें कोई विशेष प्रतिभा होती है, बल्कि इसलिये कि वह कैसे छात्र नेताओं को "मैनेज" करता है…

 
At 1:28 PM, Blogger Pankaj Parashar said...

हुजूर, ये नहीं बताया कि यह है किस अखबार में? वैसे हाल ही में दिवंगत हिंदी के आलोचक को भाषा से उधार ली हुई एक खबर में जनसत्ता ने २००७ का साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिलवा दिया है। अखबारों का अब क्या कीजे।

 
At 2:09 PM, Blogger इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत खूब! पर इस सम्पादक जी के लिए ये कोई नई बात थोड़े ही है. ये तो अक्सर यही करते हैं.

 
At 2:45 PM, Blogger संजय बेंगाणी said...

अखबार तो जनता के लिए ही है ना, यही अखबार जरा सरल भाषा में समझा दे (अगर खुद समझ गये हो तो :D )

 
At 5:40 PM, Blogger चलते चलते said...

ये शायद वे संपादक है जो एक अखबार का नाम रजिस्‍ट्रेशन कराकर बन जाते हैं। पढ़े लिखे होते और वाकई संपादक बनने के लायक होते तो ऐसी वेबकूफी नहीं करते।

 

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